Sunday, 20 May 2012

बस हवा बनना है ....


मुझे भी हवा बनना है
मिटटी और पानी में चलना है
आसन सा सफ़र होगा
कभी यहाँ कभी वहां  होगा
कितना अच्छा होगा
देखेगा ना  कोई
क्या करती हूँ दिन भर
हंसती हूँ या रोई
जागी हूँ या सोयी
कभी सूरज से पेंच
कभी धरा से लिपट जाउंगी
सोते रहे तुम
तो गुनगुना के जगाउंगी
हौले से सहलाउंगी
हाथ बढा जो पकड़ना चाहो
रेत की तरह फिसल जाउंगी

4 comments:

  1. अनोखी कल्पना है!

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  2. kya kya ban-na chahtey hain naa hum bhi..sundar

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  3. हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति राज लुक्ष्मी जी, बहुत खूब

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