Monday 23 March 2015

आज़ादी …………… 

मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जो पनपा था तुम्हारी मेरी नज़र मिलते ही
मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जो महसूसा था तुम्हारे पहले स्पर्श में
मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जब पहली बार तुमने blame किया था
मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जो मुझमे बेइंतेहा टूटन भर गया
मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जो मेरी आँखों मे दुःख बन कर और तुम्हारी आँखों में रुखाई बन कर था हमारी आखिरी मुलाक़ात में
मैं खुद को तुम्हे और उस अहसास को आज़ाद करती हूँ ...कि अब तुम नही हो
मैं खुद को तुम्हे और उस हर अहसास को आज़ाद करती हूँ 
जो तुमसे जुड़े थे
क्या मैं सचमुच कर पाऊँगी 
जो मैं कहती रहीं हूँ खुद से ..
छू लो आसमान …… 


कोहरे को चीरती 
'सूरज' की रश्मियाँ
क्षितिज संवारती
'धरा' को निखारती
और बादलों के सफ़ेद धागों से
बुनती हैं सपनों की थान
जब जब मन नहीं पढ़ पाती
मेरी कराती मुझसे पहचान
उदास पलों में मुझसे कहती
धीरज धरो खुद को सम्हालो
छूना है तुम्हे वो नीला आसमान
सभ्यता… 

उसके गाँव से दिखती थी 
शहर की चमकीली रोशनियाँ
स्कूल से लौटते 
उसने कई बार देखी 
बड़ी बड़ी मोटर गाड़िया
खड़ी रह जाती सम्मोहित
खूब चमकदार लोग
खूब चमकती गाड़ियां
'माँ 'झकझोर के कहती
हमारी गुड़िया खूब पढ़ेगी
लाट साहब बनेगी
और गुड़िया सिर्फ पढ़ती
कि एक दिन वो भी शहर जायेगी
और जब गयी तो पाया
वहां भी लोगों का शरीर बिंधा है
गाँव के लोगों की तरह
आत्माएं चित्कारती है
कटते जानवरों सी
पर वो स्यापा नही करते
पता ही। नही चला
कब वो भी हिस्सा हो गयी
उस मृतप्राय भीड़ का
वधिकों के तीर लगते हैं
वो खींच कर फेंकती है
हर बार छलके खून देख कर
एक विद्रूप सी मुस्कान तिरती है
हाँ वो चुका रही है कीमत
किश्तों में ..सभ्य होने की
और चल पड़ती है
आगे और आगे..