Thursday, 12 December 2013

इंतज़ार.....



इंतज़ार.....


जाने कब से वो कर रहा था इंतज़ार
पेड़ से टेक लगाये
अगले तीन गाँव पार था उसका प्यार
रात  भर जागने के बाद 
धुंधलके सुनी थी इक आहट 
क़दमों की 
चौंक गया 
हाथ बढ़ा छूने के लिए 
उसे जिसके लिए
देख रहा था वो रास्ता 
'और कब तक ' कह पाया 
उसकी बढ़ी  हथेलियां भर दी गयी 
शेफाली के फूलों से
ये कहते 
'इन्हे फिर से लगा सकते हो '?
पेड़ पर 
वापस 
कैसा जवाब था 
कदम मुड़ चुके थे 
वो सोचता खड़ा रह गया 
क्या इतना असम्भव है 
बिछड़े  हुओं  का मिलना 
इतनी शताब्दियों  बाद भी  







उम्मीदों को 

पिंजरे के पंछी न बनाओ 

सूरज कि रौशनी दिखाओ 

उन्हें चहकने दो 

तुम मुस्कुराओ 

हाँ!

नहीं पूरी होती हर ख्वाहिश 

मुक्त करो गगन में उन्हें 

तुम भी हलके हो जाओ 


Saturday, 22 June 2013





बिलकुल वैसा ही कमरा है 
बड़ी बड़ी खिडकियों वाला 
'लेस' के परदे भी लगे हैं 
मैं कुछ देर को 
मौत से नज़र बचाकर 
आँखें खोल ही लेती हूँ 
आसपास सब गहरी नींद में 
'मृत्यु' अक्सर रचती है ऐसे प्रपंच 
मृत्यु बोझ से अधमरी चेतना 
याद करती हैं 
वो सपना 
जो हमने देखा था 
ऐसे ही कांच की खिड़कियाँ 
ऐसे ही झूलते परदे 
'लिनन की चादर वाला 
'किंग बेड '
और बाहर ' पूनों 'का चाँद 
कुछ चीज़ें बदली हैं 
बस लिनेन की जगह 
एक सफ़ेद सूती चादर 
और किंग बेड की जगह 
रौट आयरन का सख्त सा बेड 
इंतज़ार वैसा ही 
जैसा सोचा था 
बस इस बार मिलने वाला कोई और है 
जिससे मिलने के बाद 
हम कभी नहीं मिल पाएंगे 
पर 
मेरी आत्मा में 
अंतिम निशानी इस दुनिया की 
तुम्हारी याद होगी 
सिर्फ तुम्हारी याद 
सब छोड़ कर जा रहीं हूँ 
बस इंतज़ार है साथ ...
अब हम मिलें 
तो मुझे आँखों से पहचानना 
मैंने सुना है 
सारी निशानियाँ 
मिट जाती हैं 
पर आँखें ....
हर जनम वही रहती हैं

Saturday, 18 May 2013

इस प्यार को क्या नाम दूँ ...??

   






हम दर्ज करेंगे,
अलग अलग  
अपनी अपनी 
डायरियों में 
साथ गुजारे लम्हों का हिसाब 
और सारी उम्र 
अपने बच्चों से करेंगे चर्चा
एक कच्ची अमिया जैसे लगाव  का 
जब बिना मिले ही 
एक दुसरे के लिए जिया था जीवन 
बिना किसी इच्छा 
आकांक्षाओं  के 
और फिर  आधी सदी गुजार  दी 
एक दुसरे को देखे बिना ही 
फिर एक दिन 
जब मै  और तुम मर जायेंगे
हजारों किलोमीटर के फासले पर 
हमारे बच्चे 
हमारी छोड़ी निशानियों से 
ढूंढ लेंगे एक दुसरे को 
हमारा  प्यार हम रोप जायेंगे 
उनके ह्रदय में

मेरी डायरी में दर्ज होगी 
एक अंतिम इच्छा 
तुम्हारे घर के सामने 
तुम्हारे हाथों से लगाया 
गुलमोहर का एक बीज 
मेरे घर के सामने वाले 
गुलमोहर के बाजु में लगाना 
और .....
मेरे आँगन के पेड़ का बीज 
तुम्हारे आँगन में 
हम सारी 'मई 'एक साथ मुस्कुराएंगे 
वो याद करेंगे 
आश्चर्य प्रकट करेंगे 
उन्हें तो पता भी न चला 
'माँ उनके साथ साथ 
किसी और से भी जुडी रही 
इस हद तक 
और सीखेंगे 
किसी को प्यार करते 
उसके लिए जीते 
दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ा जाता 
ठंडी आहें भरना ही 
प्यार के घनत्व को नहीं दर्शाता 

Wednesday, 8 May 2013

सब कुछ बह जाता है ...



कुछ भी नही बदलता
किसी की 
मौजूदगी 
या गैर मौजूदगी से 
धरा के दो बिन्दुओं में से 
किसी भी जगह खड़े होने पर
अगली  तरफ 
मै  देख सकती थी 
.........
वैसे ही पतझड़ के पत्ते 
वैसा ही बसंत 
वैसे ही बारिश 
वैसा ही हर रंग 
तुम्हारे इर्द गिर्द फ़ैली 
वैसे ही रौशनी 
और फासला 
वैसा ही अनन्त 

अब मुझे सब देखने के बाद 
किसी पर गुस्सा नहीं आता 
तुम पर भी नहीं 
अपनी निरर्थकता पर भी नही 
सुबह से शाम तक 
ढोर डंगर की तरह काम करते 
या शाम को छत पर खड़े हो 
डूबते सूरज को घूरते 
दिमाग की प्रश्नावली को बिना हल ढूंढे 
एक शून्य में जीना आ गया है
या कहूँ ...'ज़िन्दगी'
तुम्हारे मित्र समय ने सिखा दिया है   

Monday, 18 February 2013



औरत ..जो परवाह नहीं करती 

मैंने देखा है दुलारते उसे
हवा को 
बाँहे लहरा कर समेट  लेती है  
हौले हौले 
कान में फुसफुसाती सी आवाज़ में 
पेड़ों से बात करती है
क्या ये आवारगी होती है  

नदियों को मुंह चिढाते निकल जाती है 
किसी आवारा  पिल्लै को घर ले आती है 
कभी पंछियों को दाना  चुगाती है 
कभी दो चार हर श्रृगार 
जमीन से उठा कर 
किसी अजनबी का नाम 
ले हवा में उछाल  देती है 
क्या ये आवारगी होती है 

बस दिन भर जो प्यार बोती  है 
प्यार काटती  है 
फ़क़त इतना ही तो 
अपनी भावनाएं नहीं छुपाती 
करने के बाद 
माफ़ी को नही गिडगिडाती है 
क्या ये आवारगी होती है 

सारे दर्द छुपा कर 
खूब खिलखिलाती है 
खूब सारी मिर्च के साथ 
सड़कों पर गोलगप्पे खाती है 
कोई कुछ कहे तो 
घूर कर आँखे दिखाती है 
क्या ये आवारगी होती है