कुछ भी नही बदलता
किसी की
मौजूदगी
या गैर मौजूदगी से
धरा के दो बिन्दुओं में से
किसी भी जगह खड़े होने पर
अगली तरफ
मै देख सकती थी
.........
वैसे ही पतझड़ के पत्ते
वैसा ही बसंत
वैसे ही बारिश
वैसा ही हर रंग
तुम्हारे इर्द गिर्द फ़ैली
वैसे ही रौशनी
और फासला
वैसा ही अनन्त
अब मुझे सब देखने के बाद
किसी पर गुस्सा नहीं आता
तुम पर भी नहीं
अपनी निरर्थकता पर भी नही
सुबह से शाम तक
ढोर डंगर की तरह काम करते
या शाम को छत पर खड़े हो
डूबते सूरज को घूरते
दिमाग की प्रश्नावली को बिना हल ढूंढे
एक शून्य में जीना आ गया है
या कहूँ ...'ज़िन्दगी'
तुम्हारे मित्र समय ने सिखा दिया है
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