Monday, 23 March 2015

सभ्यता… 

उसके गाँव से दिखती थी 
शहर की चमकीली रोशनियाँ
स्कूल से लौटते 
उसने कई बार देखी 
बड़ी बड़ी मोटर गाड़िया
खड़ी रह जाती सम्मोहित
खूब चमकदार लोग
खूब चमकती गाड़ियां
'माँ 'झकझोर के कहती
हमारी गुड़िया खूब पढ़ेगी
लाट साहब बनेगी
और गुड़िया सिर्फ पढ़ती
कि एक दिन वो भी शहर जायेगी
और जब गयी तो पाया
वहां भी लोगों का शरीर बिंधा है
गाँव के लोगों की तरह
आत्माएं चित्कारती है
कटते जानवरों सी
पर वो स्यापा नही करते
पता ही। नही चला
कब वो भी हिस्सा हो गयी
उस मृतप्राय भीड़ का
वधिकों के तीर लगते हैं
वो खींच कर फेंकती है
हर बार छलके खून देख कर
एक विद्रूप सी मुस्कान तिरती है
हाँ वो चुका रही है कीमत
किश्तों में ..सभ्य होने की
और चल पड़ती है
आगे और आगे..

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