एक चाँद रात
जब अचानक लाइट गुल हुई थी
तुम चुपचाप हाथ पकड़ छत तक ले गए
इश्क की शुरुवात के दिन थे
और पहले से लाई जलेबी खिलाई थी
शायद पिछली रात ही तो फरमाइश की थी
मुझे याद है
वो उम्मीदों के दिन
जब रातबेरात कुछ भी खाने का जी करता था
और दुसरे दिन तुम ले ही आते
किसी भी तरह
और देर रात छत जाना
एक काम बन गया था
सबकी नज़र बचा कर
जाने कितने मधुर क्षणों का गवाह बना
ये चुप्पा चाँद
कई मनमुटाव भी सुलझाये हमारे
आखिर सियामी बने
कमरे की दीवारें कुछ कहते ही चुगली खाती थी
तब छत ही होता था सुरक्षित कोना
कहने सुनने की जगह
चाँद के सामने सरे तंज छट जाते
रेशम सी फिसलती चांदनी
शीतल कर देती मन का कोना
चाँद गजब का राजदार निकला
कभी किसी से कुछ नही कहा
बस सारे राज चुपचाप
अपनी डायरी में नोट करता
न सलाह देता न मशविरा
और दिन की रौशनी में अनसुलझे धागे
चाँद की मध्धिम रौशनी में सुलझ जाते
वो अब भी परेशानियों में
अपना कन्धा देता है
टिकाने को
अब भी
नज़र मिलते ही मुस्कुरा उठता है
कौन देता है आखिर इतना साथ ...
Extraordinary... both the poem and the thought :)
ReplyDeletechhitakte balon se girti yadon ki bundon ka wo chehra aapne samne la diya............sukriya
ReplyDeleteवाह सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनायें
shukriya...Nadir Saheb.
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