Monday, 19 November 2012



मै  जी रहीं हूँ 
एक अलग सी औरत 
जो मेरे अन्दर ही बसर करती है 
जीती है 
एक अनाम सा
निशर्त  रिश्ता 
जो तय करता है 
बिना मुझसे पूछे 
किस से कब मिलना है 
किस से कब बातें करनी है 
और कब उठ कर 
चले जाना है 
अब तक जिए सारे  रिश्तों से
सारे ओहदों से  
अलग है 
कुछ रंग जुदा हैं 
कुछ स्वाद अजीब है 
पर है अनोखा 
आसान  बनाता 
जीवन 
'ईश्वर '
अब कोई शिकायत नहीं  
मै  तेरी' रज़ा '
में 'राजी' हूँ 
सच मानो
पहले  
जब  पकडती थी 
ज़िन्दगी की कड़ियाँ 
और कस  के रिश्ते 
वो  हाथ से छूटे जाते थे 
अब जब छोड़ दिया 
मुठ्ठी बांधना 
आ आ के 
मेरे साहिल से 
ख़ुशी बन लिपटते हैं 

Thursday, 8 November 2012

कुछ याद आता है .....

प्यार 'था '

नहीं' है '

अब भी  है वही अहसास 

जब तुमने कहा था 

कहाँ दूर जा रहा हूँ 

एक  ही ब्रम्हांड में हैं 

'पग्गल' 

वही  सूरज देखेंगे 

वही चाँद 


और बांध लेंगे 

भावनाओं पर बाँध 

मै चाहती थी तुम कहो 

मै तुम्हे याद करूँगा 

तुमने कहा 

'कहाँ भूलूंगा '

जब कोई बच्चा बारिश के छीटें  उडाएगा 

माली की नज़र बचा कर 

एक  गुलाब तोड़ लायेगा 

दरवाजे पर खड़े रोटी मांगते बच्चे को 

पूरा पर्स पकडाये गा 

मुझे तुम दिखोगी 

भूतनी 

और बस युद्ध शुरू हो जाता 

एक दुसरे के पीछे 

भागते 

कभी कभी लगता है 

शायद कई जन्मों से दौड़ रही 

तुम्हारे पीछे 

तुम उस समय भी ताक़तवर थे 

आज भी हो 

और मैं भाग भी रही कुछ कम गति से 

की तुम्हे कभी न पकड़ सकूँ 

मुझे ऐसा ही रहना है 

तुम्हारा ध्यान भागने में हो 

मेरा ध्यान पकड़ने में 

और हम दोनों 'ध्यानी ' के बीच  कोई न हो 

Tuesday, 6 November 2012

ये चुप्पा चाँद ..:)





एक  चाँद रात 
जब अचानक लाइट गुल हुई थी 
तुम चुपचाप हाथ पकड़ छत तक ले गए 
इश्क की शुरुवात के दिन थे 
और पहले से लाई जलेबी खिलाई थी
शायद पिछली रात ही तो फरमाइश की थी  
मुझे याद  है 
वो उम्मीदों के दिन 
जब रातबेरात  कुछ भी खाने का जी करता था 
और दुसरे दिन तुम ले ही आते 
किसी भी तरह 
और देर रात छत जाना 
एक काम बन गया था 
सबकी नज़र बचा कर 
जाने कितने मधुर क्षणों का गवाह बना
ये चुप्पा चाँद 
कई मनमुटाव भी सुलझाये हमारे 
आखिर सियामी बने 
कमरे की दीवारें कुछ कहते ही चुगली खाती थी
तब छत ही होता था सुरक्षित कोना 
कहने सुनने की जगह
चाँद के सामने सरे तंज छट  जाते 
रेशम सी फिसलती चांदनी 
शीतल कर देती  मन का कोना 
चाँद गजब का राजदार निकला 
कभी किसी से कुछ नही कहा 
बस  सारे  राज चुपचाप 
अपनी डायरी में नोट करता 
न सलाह देता न मशविरा 
और दिन की रौशनी में अनसुलझे  धागे 
चाँद की मध्धिम रौशनी में सुलझ जाते 
वो अब भी परेशानियों में 
अपना कन्धा देता है 
टिकाने को 
अब भी 
नज़र मिलते ही मुस्कुरा  उठता है
कौन देता है आखिर इतना साथ ...