Sunday 2 September 2012

शाम की बेचैनियाँ....





'जब एक ढलते शाम की बेचैनियाँ सताती हैं '

मत बांधो किसी बंधन में 
उड़ने दो स्वछन्द गगन में 
कल्पनाओं  की वीथिका में भटकने दो 
मुझे मुझमे खुद को तलाशने दो 
सारी कोशिशे मेरे सीखने की है 
शायद 
तुम  भी गुजरे होंगे इन गलियों से 
एक घुटन 
एक बेचैनी को महसूस होगा 
जब सारा जहाँ  एक पिंजरा सा लगा होगा
ये वैसा ही सफ़र है 
मुझे चलने दो 
बस .... 
बिना कुछ कहे 
आखिर तुम भी जानते हो 
'विलंबित' हो या' द्रुत
'सम' पर ख़त्म हो जाता है 

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