Thursday, 16 August 2012

बड़ी आस थी 
मिलन की 
नदी की आँखों में 
जाने कहाँ कहाँ से बहती आयी थी 
आशाएं  और सपने लाई थी
सागर को पहले पहल देखा होगा 
तो सहमी होगी 
धरा की कोख से निकली ,
धरा को भूलना होगा 
जिन लहरों से डरती थी 
उनकी ताल में झूमना होगा 
साथ कई नदियाँ बहती थी 
अलग अलग से रूप  जिनके 
कोई स्थूल कोई दुर्बल सी 
कई मटमैली कोई निर्मल सी 
सारा कुछ 'वार ' दिया 
नदी ने 
और पाया एक अलग सा सुख
अन्दर ही अन्दर सालता था  
सफ़र ख़त्म होने का दुःख 
उसे दुःख को सुख में बदलना आता था 
सूरज की गेंद खेलती .छुपाती 
लहरों पर चढ़ घूम आती थी 
बहुत याद आये तो ...
धरा को चूम आती थी 

Wednesday, 1 August 2012

तुम्हारे साथ ....:))

मै एक पूरा दिन गुजारना चाहती हूँ 
तुम्हारे साथ
मै सूरज की रौशनी में तुम्हे देखना चाहती हूँ 
मै देखना चाहती हूँ 
हमे शहर की सड़के एक साथ देख कर 
क्या कहती हैं 
मै उस पार्क की बेंच को चिढाना चाहती हूँ 
जो अकेले बैठने पर मुंह छुपा कर हंसती थी 
मै सड़क पर खड़े हो कर 
बारिश  में गरम  सिंके  भुट्टे  चखाना चाहती हूँ 
मैंने कई बार मुह्सुसा है तुम्हे बहुत पास 
अब  दुनिया  को तुम्हे दिखाना  चाहती हूँ 
चांदनी में कई बार भीगी  हूँ  तुम  संग  
आज तुम्हे दिन की रौशनी में नहलाना चाहती हूँ