Monday, 18 February 2013



औरत ..जो परवाह नहीं करती 

मैंने देखा है दुलारते उसे
हवा को 
बाँहे लहरा कर समेट  लेती है  
हौले हौले 
कान में फुसफुसाती सी आवाज़ में 
पेड़ों से बात करती है
क्या ये आवारगी होती है  

नदियों को मुंह चिढाते निकल जाती है 
किसी आवारा  पिल्लै को घर ले आती है 
कभी पंछियों को दाना  चुगाती है 
कभी दो चार हर श्रृगार 
जमीन से उठा कर 
किसी अजनबी का नाम 
ले हवा में उछाल  देती है 
क्या ये आवारगी होती है 

बस दिन भर जो प्यार बोती  है 
प्यार काटती  है 
फ़क़त इतना ही तो 
अपनी भावनाएं नहीं छुपाती 
करने के बाद 
माफ़ी को नही गिडगिडाती है 
क्या ये आवारगी होती है 

सारे दर्द छुपा कर 
खूब खिलखिलाती है 
खूब सारी मिर्च के साथ 
सड़कों पर गोलगप्पे खाती है 
कोई कुछ कहे तो 
घूर कर आँखे दिखाती है 
क्या ये आवारगी होती है